धार्मिक

रोज़ा भूखों और प्यासों की तकलीफ़ों का एहसास दिलाता है- मुफ्ती नश्तर फारुकी

बरेली

अक्सर ऐसा होता है कि पढ़कर, सुनकर या देखकर किसी की तकलीफ़ का सही अंदाज़ा नहीं हो पाता, लेकिन जब इंसान उस तकलीफ़ से ख़ुद गुज़रता है तब उसे उस तकलीफ़ का ब-ख़ूबी अन्दाज़ा होता है जिस तकलीफ़ को वह पढ़कर, सुनकर या देखकर महसूस नहीं कर पाया था Iयह बातें मरकजे अहले सुन्नत बरेली शरीफ स्थित मरकज़ी दारुल इफ्ता के वरिष्ठ वरिष्ट मुफ्ती अब्दुर्रहीम नश्तर फारुकी ने कही, उन्हों ने कहा कि रोज़ा रहकर इंसान जब ख़ुद भूक और प्यास की शिद्दत बरदाश्त करता है तो उसे प्रैक्टिकल तौर पर हर उस तकलीफ़ और परेशानी का एहसास होता है जिस तकलीफ़ और परेशानी से समाज के ग़रीब लोग गुज़रते हैं, यह एहसास इंसान को ज़रूरत मन्दों की इमदाद और उनसे हमदर्दी करने पर उभारता है, अपने मातहतों के हुकूक याद दिलाता है, सभी मुस्लमान एक साथ सहरी और इफ्तार करते हैं, सभी को एक ही तरह भूक और प्यास लगती है, इससे इंसान के अन्दर ऊँच नीच, छोटे बड़े और अमीर ग़रीब का फर्क़ मिटत जाता है, एक दूसरे का दुख दर्द बांटने का ज़ज्बा पैदा होता है, रोज़ा इंसानों को यह सोंचने पर मजबूर करता है कि उनको तो एक ख़ास वक़्त में खाने पीने को ज़रूर मिल जाएगा, लेकिन उन लोगों पर क्या गुज़रती होगी जिन्हें कई कई दिनों तक कुछ खाने पीने को नहीं मिलता, यह सोचकर अमीर लोग अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए ज़रूरत मन्दों की मदद करते हैं | इस्लामी रुक्न ज़कात का एक अहम मक़सद मआशरे के ग़रीब और असहाय लोगों की माली मदद करना भी है ताकि वह भी आम मुसलामानों की तरह ईद की खुशियाँ मना सकें I

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